डर के पार 🔗
07:12 am
डर है कहीं वक्त की रफ्तार से पिछड़ न जाऊँ,
डर है कहीं मौके की दस्तक पर चुप न रह जाऊँ,
डर है कहीं जल्दबाज़ी में राहें उलझ न जाएँ,
डर है कहीं धैर्य रखते-रखते हाथ खाली न रह जाएँ।
देखूँ क्या दुनिया कितनी आगे निकल गई,
या देखूँ खुद में, मैं कितनी दूर चल आई?
खुश रहूँ खुद में, खुद को थामे रहूँ,
या जिनसे खुशियाँ पाई, उनकी हँसी सहेज लूँ?
डर है कहीं भीड़ में खो न जाऊँ,
डर है कहीं अकेले रह जाने से टूट न जाऊँ।
सब्र करूँ, कि फल मीठा लगे,
या सब्र में डूबकर, हर मोड़ पर झुकती रहूँ?
मन के बोझ को किससे बाँटूँ, किससे कहूँ?
या चुपचाप खुद से ही जूझती रहूँ?
क्या मैं खुद को संभाल पाऊँगी,
या बिखरकर फिर खुद ही उठ जाऊँगी?
अगर लोग मेरी डोर न थामें,
तो क्या अपनी शांति से सौदा कर लूँ?
बाहर के शोर को सुलझाऊँ,
या भीतर की जंग में खुद को ढूँढ लूँ?
ये डर, ये सवाल, ये अनकही लड़ाई,
कहाँ ले जाएगी मुझे — मैं ही क्या जानूँ?
पर चलूँगी, रुकूँगी, गिरी तो उठूँगी,
क्योंकि आखिर में, मैं खुद ही अपनी राह बनूँगी।
S.S.
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